रविवार, 27 जुलाई 2014

इन्तहा इंतज़ार की

इन्तहा इंतज़ार की 



दो आँखों की बेकरारी कर रही है किसी का इंतज़ार 
ये बिखरा हुआ सन्नाटा उसको कर रहा है बेकरार 
उसके कदमो की आहट सुनने को है बेताब 
वो है उसका नूरे नजर ,गुले-गुलजार, आफताब
जाने कब हो गया अचानक वो ओझल
 इन्तजार का एक एक पल  अब लगता है बोझल
आँगन में लगे पेड़ पर पतझड़ के बाद आई बहार
 उसकेजीवन में ना आया पतझड़ ,सावन ,वसन्त. बहार
वो आएगा एक दिन  जरूर यही है उसका विश्वास
इन्तजार में जी रही, उसके जीवन की यही है सबसे बड़ी आस
जीवन के प्रत्तेक लम्हे  में है सिर्फ उसी का  इन्तजार
सब कुछ भूल गई है, जोगन की तरह बस याद है उसका प्यार
याद मेंउसकी तड़प तड़प के होती जा रही है वो बाबरी
रो रो के बेहाल हो गई उसकी दो आँखे कजरारी
जान से भी ज्यादा जिसको प्यार करती है वो बेइन्तहा 
अब तो उसके इन्तजार की हो गई है इन्तहा
उसकी आशा का दीपक भी अब टिमटिमा रहा है 
पर ये सन्नाटा और क्यों गहराता जा रहा है 
ये सन्नाटा और क्यों गहराता जा रहा है?












6 टिप्‍पणियां:

Anita ने कहा…

बेहद मार्मिक रचना..

prerna argal ने कहा…

bahut bahut dhnyawaad aap dono ka ki aapko meri prastuti pasand aai aur uko charcha manch me bhi shamil kiya.aabhaar

विभूति" ने कहा…

कोमल भावो की और मर्मस्पर्शी.. अभिवयक्ति .....

Pratibha Verma ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

संजय भास्‍कर ने कहा…

कैसी हैं आप ? काफी समय बाद आपको पढ़ा, सकुशल रहें - यही कामना है

Anupama Tripathi ने कहा…

बहुत मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति के लिए बधाई प्रेरणा ...!!लेखनी चलती रहे ...!!शुभकामनायें ...!!